सर्वदलीय बैठक जरूरी

asiakhabar.com | June 13, 2025 | 4:25 pm IST
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जो ‘भारत-दूत’ देश की नीतियों और सोच, आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का संकल्प प्रस्तुत करने विदेश गए थे, वे स्वदेश लौट आए हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे मुलाकात की और उनके अनुभवों को सुना। यह मुलाकात और संवाद ही लोकतंत्र की सच्ची विविधता है। लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के सांसद, पूर्व विदेश मंत्रियों के अलावा, वरिष्ठ राजनयिक भी विदेशों में भेजे गए थे। उन्हें ‘भारतदूत’ का विशेषण दिया गया, क्योंकि वे विदेश में भारत के ही चेहरे थे। उनकी यही राष्ट्रीय पहचान थी। राजनीतिक पहचान गौण हो चुकी थी। कुल 7 प्रतिनिधि मंडलों में 59 सांसद और राजनयिक थे, जिन्होंने 33 देशों का प्रवास किया। भारत ने यह कूटनीतिक प्रयोग पहली बार किया, जो अपनी बात रखने में कामयाब रहा। किसी भी देश ने भारत का विरोध नहीं किया। यह भी तथ्य सामने आया कि संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से कमोबेश 100 देश ऐसे हैं, जिन्होंने भारत की तरह ही आतंकवाद का दंश झेला है। उनमें ‘ग्लोबल साउथ’ के अफ्रीकी देश भी हैं, जिनका आतंकवाद शेष विश्व ने साझा नहीं किया है, लिहाजा उन्होंने आतंकवाद पर भारत का नेतृत्व स्वीकार करने की बात कही। अमरीका समेत प्रमुख यूरोपीय देशों ने भारत के पक्ष का समर्थन किया, लेकिन देश में विभिन्न टीवी चैनलों के स्तर पर अलग ही व्याख्याएं की जा रही हैं। बहरहाल बुनियादी मुद्दा पाकपरस्त आतंकवाद का था, जिसके कारण ‘ऑपरेशन सिंदूर’ तक की नौबत आई। हालांकि भारत अब भी मानता है कि संघर्ष दो देशों और उनकी अवाम के बीच नहीं है। वह आतंकवाद को मिट्टी में मिलाने का ऑपरेशन था। हमारे ‘भारतदूतों’ ने विदेश में राजनीतिक नेतृत्व, नागरिक समाज, थिंक टैंक, उद्योग जगत के नेतृत्व और भारतीय प्रवासी समुदाय आदि से मुलाकातें कीं। संवाद और संबोधन के जरिए विदेशों को खुलासा किया गया कि आतंकियों के अड्डे और करीब 170 आतंकियों को मौत के घाट उतारना क्यों अनिवार्य था? यदि 9-10 मई की दरमियानी रात में युद्ध जैसे हालात बने, तो उसके लिए पाकिस्तान दोषी था, क्योंकि आतंकियों पर किए गए प्रहार को उसने पाकिस्तान के अस्तित्व पर हमला मान लिया और भारत के सैन्य तथा नागरिक ठिकानों पर हवाई हमले किए।
भारत को जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी, नतीजतन पाकिस्तान के संवेदनशील, महत्वपूर्ण एयरबेस, रनवे, रडार एवं एयर डिफेंस सिस्टम तबाह कर दिए गए। उसके बाद कथित संघर्ष-विराम घोषित कर दिया गया। सैन्य कार्रवाई विराम को अब एक माह बीत चुका है, लेकिन विपक्ष अब भी वही सवाल रट रहा है- पहलगाम नरसंहार के आतंकी कहां फरार हो गए? वे ‘अमरनाथ यात्रा’ के दौरान भी हमला कर सकते हैं! मोदी सरकार की विदेश नीति नाकाम साबित हुई, लिहाजा ‘भारतदूत’ के रूप में विपक्षी सांसदों, नेताओं को विदेश भेजना पड़ा? संसद का मॉनसून सत्र अभी काफी दूर है, लिहाजा सरकार एक और बार सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुला लेती? आतंकवाद के मोर्चे पर अमरीका भारत और पाकिस्तान को ‘समान महत्व के देश’ मानता है, क्या भारत इस कूटनीति को उचित मानता है? क्या अमरीका के इस रवैये का भारत को उचित, राजनयिक जवाब नहीं देना चाहिए? अमरीका की केंद्रीय कमान के कमांडर जनरल माइकल कुरिल्ला ने कहा है कि कोई ‘बाइनरी स्विच’ नहीं हो सकता कि यदि वाशिंगटन के नई दिल्ली से संबंध हैं, तो इस्लामाबाद के साथ रिश्ता नहीं हो सकता। जनरल का मानना है कि आईएसआईएस-खुरासान अमरीका समेत अन्य देशों के खिलाफ भी साजिश रचने वाले सक्रिय आतंकी संगठनों में से एक है। पाकिस्तान उसके खिलाफ लड़ाई में मदद करता है। बहरहाल वही घिसे-पिटे सवाल करने से न तो भारत ताकतवर होगा और न ही मोदी सरकार ढह जाएगी। बेशक कुछ सवाल इतने जरूरी हैं कि उनके जवाब मिलने चाहिए और वह सरकार ही देगी, लेकिन उतावलेपन से क्या हासिल होगा? संसद सत्र आ रहा है। विपक्ष अपने सवाल और रणनीति तैयार कर ले, लेकिन ध्यान रहे कि सवालों की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।


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