सुख और दुख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है

asiakhabar.com | March 13, 2024 | 5:03 pm IST
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हमारे शरीर और बुध्दि से परे भी एक ऐसी प्यास और एक अभीप्सा विद्यमान है, जिसे बाहर से सब कुछ पाकर भी शान्त नहीं किया जा सकता। वस्तुतः हम अपने आप में इतने परिपूर्ण और समर्थ हैं कि बाहर से कुछ पाने की अपेक्षा ही नहीं रहती। लेकिन कृत्रिम अपेक्षाओं के जाल में हम इस कदर फंसे रहते हैं कि भीतर झांकने का अवकाश भी नहीं मिलता। व्यक्ति की हर कामना पूरी हो जाए, यह नितांत असंभव है। ऐसी स्थिति में उसके मानस में निरन्तर एक चुभन-सी बनी रहती है जो उसे कभी भी शान्ति से नहीं सोने देती।
अपेक्षाओं को जगत् से मुड़कर ही व्यक्ति उस रसातीत रस का अनुभव कर सकता है जिसके सामने स्वादिष्ट से स्वादिष्ट पकवान भी नीरस और फीके प्रतीत होने लगते हैं। उसे बाह्य निरपेक्ष सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए भगवान महावीर ने चार उपाय सुझाए हैं, जो सुख शय्या के नाम से पुकारे जाते हैं। सत्यनिष्ठ के लिए स्वयं में विश्वास होना अत्यन्त अपेक्षित है। स्वयं अपेक्षित है। स्वयं के प्रति विश्वस्त व्यक्ति ही दूसरों के प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रह सकता है। सबके प्रति विश्वस्त रहने वाला सत्य के प्रति अविश्वस्त हो ही नहीं सकता।
अपने लक्ष्य, प्रवृत्ति और प्रगति के प्रति भी विश्वास होना जरूरी है। संदेहशील व्यक्ति व्यावहारिक दृष्टि से भी सफल नहीं हो सकता। वह नीरस और कटा हुआ जीवन जीता है। उसे न अपने अस्तित्व, कर्तृत्व और व्यक्तित्व पर भरोसा होता है और न दूसरों पर। संदेह मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। उससे पारस्परिक स्ेह और सौहार्द के स्रोत सूख जाता है। मन सदा भय और आशंका से भरा रहता है। दबा हुआ भय और आशंका कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अनेक समस्याओं में यह संदेहवृत्ति ही कार्य करती है। जीवन के लिए जितना श्वास का महत्व है उतना ही महत्व समाज में विश्वास का है।
व्यक्ति को दूसरे का सुख और समृध्दि अधिक दिखती है और अपनी कम। अपनी उपलब्धि में असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति पराई उपलब्धि से जलता रहता है या उस पर हस्तक्षेप करता रहता है। इससे अनेक उलझनें सामने आती हैं। दूसरे की प्रगति के प्रति असहिष्णुता मानवीय दुर्बलता है। पारिवारिक, जातीय, सामाजिक, धार्मिक और भाषायी विवादों की जड़ यह असहिष्णु वृत्ति ही है। इसी वृत्ति ने न जाने कितनी बार मानव जाति के युध्दों की लपेटों में झोंका है। वस्तुतः सुख-शांति और आनन्द को पाने के लिए कहीं जाने की अपेक्षा नहीं है। वह स्वयं के भीतर हैं।
व्यक्ति का चैतन्य जागरण जितना स्वल्प होता है, मन और इन्द्रियां उतने ही बाहर दौड़ते हैं। ऊर्जा और चेतना का बहाव भीतर न होकर बाहर की ओर होने लगता है। बहिर्मुख व्यक्ति बाह्य के प्रति आसक्त रहता है। लेकिन उसे भी कभी संतोष नहीं मिलता। असंतुष्ट मानस की बगिया में आनन्द के फूल खिल नहीं सकते। इसलिए महावीर ने सुझाया दृष्ट पदार्थों से उदासीन रहो। यह विरक्ति ही अंतर्दर्शन का मूल और आनन्द का स्रोत है।
वेदना दो प्रकार की होती है, शारीरिक और मानसिक। शारीरिक वेदना प्रगति में बाधक बन सकती है पर घातक नहीं। घातक बनती है मानसिक वेदना। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां, उतार-चढ़ाव और घुमाव प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पथ में आते हैं। दुर्बल मानस उनसे बहुत जल्दी प्रभावित हो जाता है। वह जरा सी अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में खिन्न हो जाता है। दोनों परिस्थितियों में मानसिक संतुलन बनाये रखना अत्यंत अपेक्षित है। परिस्थिति विजय का सुन्दर उपक्रम है- उनसे ऊपर उठ जाना। यदि हम ऊपर उठ जायेंगे तो परिस्थितियों का प्रवाह नीचे से बह जायेगा। यदि हम उस प्रवाह में बैठ जायेंगे तो वह बहा ले जायेगा।
जो तटस्थ होकर प्रिय-अप्रिय परिस्थितियों को सहना जानता है, वह सचमुच जीना जानता है और कुछ कर गुजरना भी जानता है। शान्ति किसी बाहरी साम्राज्य को जीतने से नहीं, आत्म साम्राज्य को पाने से उपलब्ध होती है। सुख और दुःख का मूल कारण स्वयं व्यक्ति ही होता है। उसकी नियंत्रित वृत्तियां जहां उसकी राहों में फूल बिछाती हैं, वहां अनियंत्रित वृत्तियां शूल बन कर उसके प्राणों में प्रतिक्षण चुभन पैदा करती रहती हैं। भगवान महावीर ने एक आध्यात्मिक औषधि अवश्य बताई है जिसके सेवन से व्यक्ति क्षण भर में अनगिनत मनोव्याधियों से छुटकारा पा सकता है। उस दिव्य औषधि का नाम है समता।
विषम मन के धरातल पर ही दुःख का अंकुरण होता है। उन अंकुरों से विक्षोभ, व्याकुलता, दुराग्रह, प्रतिशोध आदि के फूल खिलते हैं और पुनः फलते हैं अनेक प्रकार की समस्याओं के विषैले फल। समता एक ऐसा रसायन है, जिसके छिड़काव में उन विषैले पौधों का समूल उन्मूलन हो सकता है। मेधावी व्यक्ति उस रसायन से मानसिक विक्षोभ या लक्ष्य के प्रति होने वाले अनास्थाभाव के अंकुरों को पनपने से पहले ही समाप्त कर देता है। कोई भी व्यक्ति यदि अशान्त होता है तो वह अपने ही चिंतन और गलत कार्यों से होता है। इसके विपरीत जिसके मन में समत्व प्रतिष्ठित हो जाता है, उसके पांव कभी गलत दिशा में नहीं उठते। उसके हाथ कभी गलत कार्यों में संलिप्ति नहीं होते।
विषमताओं के तूफान से जब जब जीवन नौका विपदाओं के अन्तहीन सागर में डूबने लगे तब तब यदि हम उस नौका के मस्तूल पर प्रसन्नता की पताकाएं फहरा दें और समता का लंगर डाल दें तो निश्चय ही हमारा जहाज सुरक्षित रह जायेगा और हमारा जीवन समाप्त होने से उबर जायेगा। सचमुच समता एक ऐसा लंगर है जो हर परिस्थिति में हमारे जीवन जहाज को संतुलित और नियंत्रित रख सकता है। उसका प्रयोग हम चाहें कितनी बार करें, वह समाप्त नहीं होगा। इन सुख शय्याओं में सोने वाले व्यक्ति काल्पनिक या अतृप्त वासनाओं के कारण उभरने वाले सपनों में नहीं खोते, अपितु दिव्य लोक में विहार करते हैं, जहां सर्वत्र आनन्द बिखरा पड़ा है।


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